मंगलवार, 29 दिसंबर 2009

सामाजिक चेतना व जन जागृति से भ्रष्टाचार पर अंकुश संभव -डा. महेन्द्र कुमार शर्मा

सामाजिक चेतना व जन जागृति से भ्रष्टाचार पर अंकुश संभव

डा. महेन्द्र कुमार शर्मा

लेखक मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय में अधिवक्ता हैं तथा निधि क्षेत्र में अध्यापन का भी विशेष अनुभव प्राप्त हैं।

आर्थिक संरचना में तेजी से आरहे परिवर्तनों के कारण नये प्रकार के आर्थिक अपराध सामने आ रहे हैं। गत चार दशकों में अपराधों की श्रृंखला आर्थिक अपराधों की ओर मुड गयी है । बोफोर्स, हवाला, स्टॉक मार्केट - सिक्यूरिटी स्कैम, तेलगी स्टाम्प घोटाला तथा अब मामला झारखण्ड राज्य घोटाले का है, जो लगभग 4 हजार करोड़ का है । ''राजनीतिज्ञ, समाज सेवा के लिये राजनीति में भाग लेते हैं ना कि वे धन कंमाने की दृष्टि से राजनीति करते हैं'' यह वाक्यांश अब सही नहीं रहा है । ऐसा लगता है जैसे भ्रष्टाचार अब लोकसेवकों में भी अपनी जड़ें जमा चुका है । घटनाक्रम सिलसिलेवार दर्शाते हैं जैसे राजनैतिक तथा प्रशासनिक क्षेत्र में कार्यरत व्यक्तियों का लक्ष्य अब धन कमाना ही रह गया हो ।

       यद्यपि आर्थिक अपराधों संबंधी पैमाना प्रत्येक देश में अलग-अलग है किन्तु मौटे तौर पर आर्थिक अपराधों संबंधी नीतियों तथा कानूनों को तीन श्रेणियों में बांटा जा सकता है । पूंजीवादी अर्थव्यवस्था वाले देश, साम्यवादी अर्थव्यवस्था वाले देश तथा मिश्रित अर्थव्यवस्था वाले देश । पूंजीवांदी अर्थव्यवस्था वाले देशों में जहॉ इन अपराधों को करने वालों के लिये ज्यादा से ज्यादा आर्थिक दण्ड व कम से कम कारावास वाले प्रावधान हैं वही दूसरी ओर साम्यवादी व्यवस्था वाले देशों मसलन रूस, चीन आदि में इस प्रकार के अपराधों के लिये ज्यादा से ज्यादा कठोरतम कारावास तथा अपेक्षाकृत कम अर्थ दण्ड के प्रावधान किये गये हैं । वहीं मिश्रित अर्थव्यवस्था वाले भारत जैसे मुल्क में हमें इसका तीसरा पक्ष देखने को मिलता है । भारत में ऐसे अपराधों के लिये दण्ड की संतुलित व्यवस्था की गई है । ऐसे अपराध के घटित होने से सामाजिक एवं आर्थिक तौर पर सम्पूर्ण समुदाय पर किस प्रकार का प्रभाव पड़ेगा इसी पर आधारित न्यूनतम से लेकर अधिकतम कठोर कारावास एवं न्यूनतम से लेकर अधिक से अधिक आर्थिक दण्डों का प्रावधान किया गया है।

       भ्रष्टाचार की समस्या पुरातन है किन्तु द्वितीय विश्व युद्व की समाप्ति के दो दशक उपरान्त से ही यह समस्या  विकराल रूप धारण करती जा रही है । अब यह समस्या कैंसर के समान होकर राष्ट्र के नैतिक आधार को ही समाप्त करने लगी है तथा राष्ट्र की वास्तविक प्रगति में अवरोधक बनती जा रही है। आज प्रत्येक व्यक्ति को जीवन में भ्रष्टाचार का किसी न किसी तरीके से शिकार होना पड़ रहा है । हमारा दुर्भाग्य है कि भ्रष्टाचार समाज का अंग (जीने का एक और तरीका) बन चुका है । इसकी गंभीरता व निन्दा को विश्व व्यापी समस्या कहकर टाल दिया जाता है जो, बचाव का कोई सार्थक मार्ग नहीं है । भ्रष्टाचार से  नैतिक मूल्यों का लगातार अवसान हो रहा है व भ्रष्टाचार के विरूध्द आवाज उठाने को सस्ती लोकप्रियता का हथकंडा माना जाने लगा है जो सचमुच चिन्ता का विषय है ।

        भ्रष्टाचार का लोकप्रिय स्वरूप 'रिश्वत' अथवा 'ग्रेटीफिकेशन' है । ऑक्सफोर्ड शब्दकोष के अनुसार किसी व्यक्ति के आचरण अथवा उस पर अनुचित प्रभाव डालने वाले लेन-देन की प्रक्रिया को 'रिश्वत' के रूप में माना जाता है । भारतीय दण्ड संहिता 1860 के अनुसार यदि कोई 'लोक सेवक' रिश्वत के लेन देन का आचरण करता है तो यह अपराध की श्रेणी में आकर दण्डनीय है । भारतीय दण्ड संहिता के अध्याय 9 में लोकसेवक से ईमानदारी की अपेक्षा की गई है।

       स्वतंत्र भारत में सरकार की पहली चिंता सार्वजनिक जीवन से भ्रष्टाचार का उन्मूलन एवं नैतिकता व ईमानदारी की स्थापना करना थी । अत: स्वतंत्र भारत के इतिहास में लोकसेवकों को नियंत्रित करने हेतु जो प्रथम कानून लागू किया गया उस विधि का नाम भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम 1947 था ।


       इस अधिनियम के साथ-साथ भारतीय दण्ड संहिता के प्रावधान भी प्रचलन में रहे तथा किसी लोक सेवक द्वारा किये जाने वाले भ्रष्टाचार को दोनों प्रकार की विधियों के अन्तर्गत कार्यवाही हेतु अभियोजित किया जाता रहा किन्तु फिर भी भ्रष्टाचार का उन्मूलन नहीं हो सका। फिर प्रावधानों की कमियों को देखते हुये संसद में एक नया विधेयक लाकर भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम 1988 पारित कर लागू किया गया । हॉलाकि ''रिश्वत'' शब्द को इसमें पूर्णत: परिभाषित नहीं किया गया है । फिर भी रिश्वत का व्यापक अर्थ इस अधिनियम एवं भारतीय दण्ड संहिता 1860 की धारा 161 में निहित है । जिसके आशय में रिश्वत का लेन - देन या संव्यवहार एक ऐसा आचरण है जिसमें सुख साधन की पूर्ति एवं प्राप्ति के लिये धन के लेन - देन का प्रयोग किया जाता है । मसलन धन का ऐसा संव्यवहार जो लोकसेवक को  नैतिकता एवं ईमानदारी पूर्ण कार्य को सम्पादित न करने हेतु अभिप्रेरित करे अथवा  उसके द्वारा नियमों एवं आचरण के विपरीत अपनी पदेन हैसियत से लाभ अर्जित करने व कार्य सम्पादन के बदले में पुरूस्कृत होने की भावना से कार्य का होना पाया जावे । किन्तु इस प्रकार प्रत्येक अनैतिक व अवैध कार्य कलापों को कानूनों की सीमाओं में बांधना कठिन है । अत: लोक सेवकों के आचरण पर नियंत्रण का अधिकार कार्यपालिका को सौंप दिया गया है तथा केन्द्रीय सिविल सेवकों के इस प्रकार के आचरण को सिविल सेवा आचरण नियमावली 1964 तथा 1965 से नियंत्रित किया जाता है । विभिन्न राज्य सरकारों ने भी अपने - अपने राज्य कर्मियों हेतु आचरण नियमावलियां बना कर लागू की हैं । इस प्रकार एक शासकीय सेवक लोकसेवक की हैसियत से करने वाले भ्रष्टाचार हेतु दोहरी दण्ड व्यवस्था से नियंत्रित होता है ।

       ''रिश्वत के आरोप की संरचना तथा परिणामत: उसके अपराध के गठित होने हेतु तीन तत्वों का होना अनिवार्य है :- (1) धनराशि या रिश्वत प्राप्त करने वाला लोक सेवक होना चाहिये । (2).उस लोकसेवक के द्वारा अविधि पूर्ण तरीके से ''ग्रेटीफिकेशन'' ''रिश्वत'' प्राप्त किया  गया हो । (3).उस लोक सेवक की अधिकार शक्ति तथा पदैन हैसियत के आधार पर किये गये शासकीय कृत्य के सम्पादन हेतु उसके द्वारा इस आशय हेतु कोई पुरूस्कार अथवा अवार्ड प्राप्त किया गया होना ।

       प्राचीन धर्म (विधि) साहित्य में ''रिश्वत'' के सन्दर्भ संबंधी अपराध एवं दण्ड व्यवस्था संबंधी प्रावधान सीमित अर्थ में दृष्टिगोचर होते हैं । तब नैतिक मूल्यों के पालन की सामाजिक जीवन के आचरण में प्रधानता थी । मनु द्वारा दी गई अपराध व दण्डों की सारणी में रिश्वत व भ्रष्टाचार को वर्गीकृत अपराध की संहिता में कोई स्थान नहीं दिया गया था तथा हिन्दू एवं मुस्लिम विधि के अन्तर्गत पाप एवं पुण्य आधारित धार्मिक तथा नैतिक नियमों का पालन सुनिश्चित किया जाता था । इस प्रकार के असंगत आचरण को धार्मिक तथा सामाजिक दण्डों अथवा संस्वीकृतियों से नियंत्रित किया जाता था ।

       ब्रिटिश- भारत के शासन काल में, ईस्ट इण्डिया कम्पनी द्वारा वर्ष 1793 के अधिनियम में ''लोक सेवक'' के कृत्य सम्पादन हेतु मांगी गयी या स्वीकार की गई धनराशि / वस्तुओं को रिश्वत माना जाता था तथा अपचारी को कम्पनी द्वारा दण्डित किये जाने के साथ-साथ प्राप्त राशि को राजसात किया जाता था साथ ही रिश्वत को लेने वाले लोकसेवक व रिश्वत देने वाले व्यक्ति को कानून की नजर में दोषी माना जाता था । कालांतर में बंगाल रेग्यूलेशन एक्ट द्वारा इसे विकसित किया गया तथा स्वतंत्रता प्राप्त होते ही 1947 का कानून लागू किया गया । पुन: संथानम समिति ने 1964 में इस विधि का भी अध्ययन किया तथा अपराध व दण्डों को पुन: निर्धारित करने हेतु अनुशंसा की । साथ ही केन्द्रीय सतर्कता आयोग की स्थापना, नई दिल्ली में फरवरी 1984 में की गयी । यह संस्था लोक सेवकों के विरूद्व शिकायतों की सघन जांच करती है । वर्ष ही 1988 के विधमान कानून में भ्रष्टाचार के दोषी पाए जाने पर न्यूनतम 6 माह के कारावास व आर्थिक दण्ड का प्रावधान है । यह कारावास अधिकतम 7 वर्षो की अवधि का हो सकता है । कई साम्यवादी देशों में भ्रष्टाचार का अपराध सिद्व होने पर दोषी को मृत्युदण्ड तक दे दिया जाता है । आर्थिक अपराध एवं भ्रष्टाचार एक ऐसी सामाजिक बुराई है जिसके उन्मूलन के लिए कानूनी प्रावधनों के साथ - साथ सामाजिक चेतना व जनजागृति होना बहुत जरूरी है ।

 

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